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आंख का पर्दा, “रेटिना” हमारी आँख का सबसे संवेदनशील हिस्ता है। जो कुछ हम देखते हैं, उसका बिंब इसकी संवेदी संवेदनशील हिस्सा है। जो कुछ हम देखते हैं, उसका बिम्ब इसकी संवेदी सतह पर ही अपनी छवि पाता है। रेटिना की बनावट खासी जटिल होती है। उसकी दो तहें होती है एक, नौ परतों वाली, अति-संवदेनशील तंत्रिकीय तह और दूसरी, भूरे रंग की कोशिकाओं की तह। निरोग अवस्था में ये दोनों तहें एक दूसरे से पूरी तरह सटी रहती हैं। संवेदी तंत्रिकीय तह के आगे जैली-नुमा “विट्रियस” और भूरी कोशिकीय तह के पीछे महीन रक्त-धमनियों से बुना “कॉरायड” पाया जाता है। कॉरयड, रेटिना का पोषण भी करता है। कुछ परिस्थितियों में यह सारा संतुलन डगमगा जाता है और रेटिना की ये दो तहें एक दूसरे से अलग हो जाती हैं। तब रेटिना का वह हिस्सा ठीक से काम नहीं कर पाता। इसे ही “रेटिनल डिटैचमेंट” कहते हैं।

रेटिनल डिटेचमेंट का सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण कारण पर्दे की संवेदनशील तह में सूराख हो जाना या उसका फट जाना है। यह सूराख या फटाव खुद पर्दे की कमजोरी तथा विट्रियस और पर्दे के बीच खींचातानी होने से बनते हैं। मायोपिया के मरीजों में इसके होने की आशंका अधिक रहती है। यह रोग किसी भी उम्र में हो सकता है। मोतियाबिंद का ऑपरेशन ठीक से न होने पर भी इसके होने का डर रहता है। ऑपरेशन ठीक हो जाए, तब भी लेंस-विहीन ऑंख में पर्दे में सूराख हो जाना ज्यादा आम होता है। ऑंख की चोट भी इसका एक बड़ा कारण है।

देख गया है कि आमतौर से पर्दे में हुआ सूराख का फटाव एकदम से डिटैचमेंट पैदा नहीं करता। सूराख पर्दे के किसी हिस्सा में है और विट्रियस किस स्थिति में इससे ही डिटैचमेंट के विकास की गति तय होती है। अत: बहुत से मामलों में इतना समय मिल जाता है कि डिटैचमेंट होने से पहले ही सूराख या फटाव को बंद कर दिया जाये।

मायोपिया के उन मरीजों में जिनमें चश्में का नम्बर 5 डायोप्टर से ज्यादा होता है, पर्दे में ह्रासकारी परिवर्तन और सूराख होने की आशंका अधिक प्रबल होती है। अत: विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे मरीजों में ऑंख के पर्दे की नियमित जाँच करवाते रहना जरूरी है।

सूराख के लक्षण

पर्दे में बने सूराख से कोई तकलीफ या दर्द नहीं होता है। उनकी पहचान डाक्टरी जाँच के समय ही हो पाती है, पर यदि पर्दा फट जाए या मरीज के ऑंख घुमाने पर विट्रियस पर्दे से टकराए, तो ऑंख के आगे बिजली कौंधने का आभास होता है। इसके साथ ही ऑंख के आगे मकड़ी का जाला, कीट-पतंगे या काली बिदियां दिखने लगती है।

डिटैचमेंट के लक्षण

डिटैचमेंट के शुरू होते ही नजर का ऊपरी या निचला हिस्सा धुंधलके में गुम हो जाता है। ऐसा लगता है मानो वह बादल से ढक गया हो। दृष्टि का कौन-सा क्षेत्र इससे प्रभावित होता है, यह इस पर निर्भर करता है कि पर्दे के किस हिस्से में डिटैचमेंट हुई है। केन्द्रीय दृष्टि शुरू में बची रहती है, यदि डिटैचमेंट फैलता जाए तो एक समय के बाद पूरी ऑंख अंधिकारी हो जाती है।

सूराख का उपचार

पर्दे में हुए सूराख या फटे का इलाज संभव है। इसके लिए पर्दे के रूग्ण हिस्से की लेजर चिकित्सा या ”क्रायापैक्सी” की जाती है।

लेजर चिकित्सा में रेटिना में हुए सूराख बन्द कर दिए जाते हैं ताकि विट्रियस उनसे होते हुए पर्दे की तहों के बीच न आ सके। इसके लिए रोगी को अस्पताल में भर्ती नहीं होना पड़ता है।

क्रायोपैक्सी में एक विशेष पेंसिल-नुमा यंत्र इस्तेमाल किया जाता है, जिसके छोर का तापमान शून्य से 70 डिग्री सेल्सियस कम रहता है। उसकी बर्फीली नोक द्वारा पर्दे के फटे हुए हिस्से को कॉरयड से चिपका दिया जाता है। यह प्रक्रिया भी मरीज को बिना बेहोशी की दवा दिए ओ.पी.डी. में किया जाता है।

डिटैचमेंट का उपचार

पर जब पर्दे की दो तहों एक दूसरे से अलग हो जाती है, तब एक बड़ा ऑपरेशन करना जरूरी हो जाता है। रेटिनल डिटेचमेंट का उपचार बिना ऑपरेशन संभव नहीं होता। इसके लिए कई तरह की शल्य तकनीकें इस्तेमाल की जाती हैं, जिनका उद्देश्य द्रव को निकाल, पर्दे की दोनों तहों को जोड़ना रहता है। रेटिनल डिटैचमेंट जितनी कम पुरानी हो, विट्रियस, रेटिना और कोरायड जितने स्वस्थ हों, ऑपरेशन के कामयाब होने की संभावना उतनी ही ज्यादा होती है। यदि सब परिस्थितियों अनुकूल हों, तो सफलता दर 90-95 फीसदी रहती है पर यदि डिटैचमेंट तीन महीने से ज्यादा पुरानी हो या पर्दे में बड़े-बड़े और कई सारे सूराख हों तथा रोगी की उम्र ज्यादा हों, विट्रियस और कॉरयड में अधिक विनाशकारी तब्दीलियां आ चुकी हों तो नतीजे बहुत अच्छे नहीं रहते। ऐसी हाल में पर्दे को वापस जोड़ने के लिए अत्याधिक जटिल ऑपरेशन करना पड़ता है। जिसमें खर्चा अधिक होने के अलावा नतीजे भी उतने अच्छे नहीं होते हैं तथा आपरेशन को दोबारा भी करना पड़ सकता है।

यदि आपरेशन न करवाया जाए तो पूरा पर्दा अलग होने के बाद सिकुड़ जाता है और ऑंख बैठक जाती है तथा बेकार हो जाती है। इसलिए विशेषज्ञ एकमत हैं कि जैसे ही डिटैचमेंट के लक्षण उभरें, तुरंत नेत्र विशेषज्ञ से सलाह लें और इस जरूरी आपरेशन को टालें नहीं।

इस ऑपरेशन में एक या दो दिन ही अस्पताल में रहना पड़ता है। इसके बाद उन्हें समय-समय पर जाँच के लिए नेत्र चिकित्सालय में दो या तीन बार आना होता है।

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