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कंजंक्टिवाइटिस ऑंखों की छूत की बीमारी है। इसे आम भाषा में ऑंखों आना या ऑंखे दुखना भी कहते हें। ज्यादातर मामलों में कंजक्टिवाइटिस कुछ प्रकार के वायरस या बैक्टीरिया के कारण होता है। ये रोगाणु आँख की कंजक्टाइवा नामक झिल्ली पर आक्रमण कर, रोग पैदा कर देते हैं। कंजक्टाइवा आँख के सफेद भाग और पलकों की भीतरी सतह को ढकने वाली महीन पारदर्शी झिल्ली को कहते हैं।

प्राय: यह रोग खतरनाक नहीं होता, किन्तु इलाज में देरी करने से नेत्र ज्योति पर बुरा असर पड़ सकता है। कंजक्टिवाइटिस अचानक ही शुरू हो जाती है। एकाएक ऑंखे लाल हो जाती है। चार से छह घंटे में रोग पूरी तरह पनप जाता है। यह बीमारी सभी उम्र के व्यक्तियों को लग सकती है लेकिन पांच वर्ष से छोटी आयु के बच्चे आसानी से इसके शिकार बन जाते हैं।

कंजंक्टिवाइटिस एक ऑंख या दोनों ऑंखों में जलन या खुजली के साथ शुरू होता है। ऑंखे लाल हो जाती है और पलकें सूज जाती है। शुरू में ऑंखों से पानी अथवा मवाद बहने लगता है और बढ़ता जाता है। ऑंखें खोलना मुश्किल हो जाता है। ऑंखें चिपकने लगती है। रोगी रोशनी सहन नहीं कर पाता। मामूली रोशनी भी ऑंखें सहन नहीं कर पाताी, दर्द करती है।

यदि इलाज न कराया जाए तो इस बीमारी का असर कार्निया पर हो जाता है। कार्निया ऑंख के काले भाग के ऊपर की पारदर्शी झिल्ली को कहते हैं। बीमारी के असर से कार्निया में जख्म हो जाती हैं। बाद में, जख्म के स्थान पर सफेदी उतर आती है और देखने में बाधा पहुंचाती है। इसके फलस्वरूप ऑंख की रोशनी हमेशा के लिए चली जाती है।

कैसे फैलती है यह बीमारी?

यह बीमारी छूत से फैलती है। रोगी की अंगुलियों, कपड़ों जैसे कि तौलिया, रूमाल आदि तथा अन्य वस्तुओं द्वारा दूसरे व्यक्ति को लग जाती है। मख्यिां भी इस रोग फैलाती है। धूल, धुआं गंदे पानी में नहाने या रोगी की सुरमा डालने की सलाई इस्तेमाल करने से भी यह रोग हो जाता है।

बंगलादेश के शरणार्थियों के साथ आए आई फ्ले या कंजक्टिवाइटिस से काफी लोग परिचित है। चंद महीनों में ही इसने लगभग पूरे भारत को अपनी चपेट में ले लिया था।

इलाज

यदि ठीक प्रकार से रोग का इलाज करवाया जाए तो चार से सात दिन में रोग ठीक हो जाता है। इसके लिए रोगी को अस्पताल में रहने की जरूरत नहीं होती।

ऑंखे आने पर एक बाद डाक्टर की सलाह अवश्य लें।

इलाज के लिए जरूरी है पीड़ित ऑंखों को साफ रखना। साफ की हुई ऑंखों में डाक्टर द्वारा दी गई दवा डालें। ऑंखों पर किसी किस्म की पट्टी या कपड़ा आदि न बाधें। ऑंखों को रोशनी से बचाने के लिए धूप का चश्मा पहनें।

रोकथाम

व्यक्तिगत स्वच्छता, रोगी की देखभाल में स्वच्छता ओर आस-पास की साफ-सफाई इस रोग से बचने के सर्वोत्तम उपाय है। ऑंखों को चार-पांच बार साफ पानी से धोना चाहिए।

रोगी को तीन चार दिन घर में आराम करना चाहिए। इससे वह जल्दी ठीक हो जाता है और अन्य व्यक्तियों को दूत फैलने की संभावनाएं कम हो जाती है। परिवार के सदस्य एक ही ड्रापर से दवाई न डालें। काजल का इस्तेमाल न करें। रोगी का तौलिया, रूमाल व अन्य वस्त्र अच्छी तरह धोए बिना अन्य वस्त्रों में न मिलाए जाए। रोगी को अपने वस्त्रों को गर्म पानी में धोने ओर धूप में सुखाने के बाद ही दोबारा इस्तेमाल करने चाहिए। रोगी की ऑंखों को रोशनी से बचाले के लिए धूप का चश्मा पहनना चाहिए। यह चश्मा अन्य व्यक्तियों को इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। जब इलाके में कंजक्टिवाइटिस से काफी लोग पीड़ित हो तो तालाब व तरण-ताल में नहीं नहाना चाहिए। भीड़-भाड़ वाली जगह, जैसे सिनेमाघर, जलसों आदि से बचना चाहिए।

आपथैलमिया नियोनेयेरम

नवजात शिशु के रोने पर उसकी ऑंख में आंसू नहीं आते, क्योंकि इतनी उम्र में तो आंसू बन ही नहीं पाते। नवजात शिशु की आंख में आंसू आंखों के रोग को दर्शाता है। यह रोग ज्यादातर मामलों में होता है, आपथैलमिया नियोनेटोरम। गर्भावस्था में अगर थोड़ी सावधानी बरती जाए तो इस रोग से शिशु को बचाया जा सकता है। वह नवजात शिशु की आंखों की एक प्रकार की कंजक्टिवाइटिस है। एक जमाने में बच्चों में पचास प्रतिशत अंधापन इसी कारण होता था, समय के साथ चिकित्सा विज्ञान में हुई उन्नति से इसकी दर घट कर बहुत की कम रह गई है।

माँ का गुप्त रोग हो जाता प्रसव के समय गुप्तरोग के कीटाणु नवजात शिशु की आंखों में प्रवेश कर लेते हैं। ये कीटाणु क्लेमाईडिया ओर गोनोकोकस ही इस रोग के लिए उत्तरदायी होता था और रोग की तीव्रता शिशु की आंखों पर भारी पड़ती थी। अब गोनोकोकस द्वारा आंख रोग काफी कम मामलों में ही होता है। रोग का जोर तीव्र से मध्यम हो सकता है।

आपथैलमिया नियोनेयेरम में शिशु की आंखे सूज कर लाल हो जाती है। उनमें मवाद बहने लगता है। बच्चा ज्यादातर रोता ही रहता है। इलाज न होने की स्थिति में कार्निया पर अल्सर हो जाते हैं। अल्सर फट भी सकते हैं ओर नेत्रज्योति सदा के लिए खत्म हो जाती है। मध्यम तीव्रता के रोग में शिशु की आंख से केवल आंसू निकलते हैं और चिपचिपापन आ जाता है।

कुछ दिनों तक लगातार एंटीबायोटिक दवाओं के प्रयोग से शिशु की आंखें ठीक हो जाती है। शिशु के साथ मां का इलाज करना भी आवश्यक है।

चूंकि रोग का बचाव संभव है। गर्भावस्था में के गुप्तांगों की जांच आवश्यक है। रोग का पता चलते ही मां का इलाज करने से शिशु को यह रोग नहीं हो पाता।

कॉर्नियल अल्सर

कंजंक्टिवाइटिस रोग का कुप्रभाव आंख के कार्निया पर हो सकता है। रोगाणुओं के असर से कार्निया पर धाव बन जाते हैं। इन्हीं घावों को कार्नियल अल्सर कहते हैं। मवाद पैदा करने वाले रोगाणु हरपीज एवं अन्य वायरस, आंख पर चोट, बच्चों में विटामिन ए की कमी, कार्नियल अल्सर के कुछ प्रमुख कारण है। कार्नियल अल्सर होने से रोगी को आंख में असहनीय दर्द होता है। आंख से आंसू निकलते रहते हैं। आंख को खेल पाना मुश्किल हो जाता है कार्निया के चारों तरफ लाली उभर आती है।कार्निया पर अल्सर को देखा पाना मुश्किल होता है। इसके लिए कार्निया को एक खास किस्म की स्याही से रंगते हैं। रंगते ही अल्सर उभर कर सामने आ जाता है।

कार्नियल अल्सर का पता चलने पर रोगी का इलाज विशेषज्ञ की देखरेख में किया जाना चाहिए। इलाज के लिए आंख की सफाई गुनगुने एंटीसेप्टिक लोशन से दिन में तीन-चार बार की जाती है। इन्फैक्शन को परास्त करने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं का प्रयोग किया जाता है। आंख को एट्रोपीन नामक दवाई द्वारा आराम कराया जाता है। आंख को गरमाई पहुंचाने से भी अल्सर को आराम पहुंचाता है। इस सबके बाद आंख पर पट्टी बांध दी जाती है। विशेषज्ञ समय-समय पर घाव का निरीक्षण करते रहते हैं।

समय से इलाज न कराने के कारण कार्निया पर सफेटी उभर आती हे, जिससे देखने में दिक्कत होती है। बाद में अधांपन भी आ जाता है। घाव के फटने से आंख का अंदरूनी हिस्सा बाहर निकल आता है। आंख की पुतली के अंदर मवाद पड़ सकता है, जिस कारण नेत्र ज्योति जाती रहती है। इसीलिए आंखें आने पर सतर्कता बरतनी चाहिए।

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