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हमारी ऑंखें रथ के उन दो अश्रों की तरह है जो रथ को प्रवाहमय रखने के लिए आपस में तालमेल बनाए रखते हैं। आँखों के बीच इस किस्म का संतुलन हमारी द्विनेत्रीय दृष्टि का आधार है जिसमें दोनों आँखे एक-दूसरे की पूरक बन जाती है। पर जब किसी कारण यह तालमेल भंग हो जाता है तो आँखें समानांतर नहीं रह पातीं। इसे ही भैंगापन कहा जाता है। इसके कई रूप हैं, पर यह दैवी अनुकंपा या प्रकोप का नतीजा नहीं, दृष्टि प्रणाली में आए किसी विकार का दुष्परिणाम होता है।

सुधा की उम्र बारह की है। खूबसूरत नाक, नपा-तुला चेहरा, बड़ी-बड़ी ऑंखें, गोरा रंग। पर खुदा को उसकी यह खूबसूरती न जाने क्यों मंजूर न हुई थी। सो उसने उस पर ग्रहण लगा दिया। सुधा ने जब से होश संभाला था, उसने पाया था कि उसकी दायी ऑंख टेढ़ी रहती थी। माता-पिता ने इसे दैवी प्रकोप मान लिया और हाथ पर हाथ धर कर बैठ गए। उनकी सुधा तो भगवती लक्ष्मी का अवतार थी। जिस घर जाएगी, उसका भाग्य खुल जाएगा। पर खुद सुधा, इससे बहुत परेशान थी। उसके सहपाठी और सलेलियां उस पर न जाने कितने ही व्यंग्य कसते और वह चुपचाप अपमान पीती जाती। इससे वह बहुत अकेली और अंतर्मुखी हो गई थी।

आखिर उसके एक अध्यापक ने ही उसके माता-पिता को राह दिखाई थी। अध्यापक के समझाने पर माता-पिता सुधा को नेत्र रोग विशेषज्ञ के पास ले गए थे। विशेषज्ञ ने जाँच करने पर पाया कि सुधा दी दायी ऑंख काफी कमजोर थी और इससे ऑंखों के बीच तालमेल बिगड़ गया था।

यदि सुधा के माता-पिता उसे बचपन में ही नेत्र विशेषज्ञ के पास ले जाते तो स्थिति इतनी न बिगड़ती। उसे पर नजर ठीक करने वाला चश्मा या कॉटैक्ट लेन्स दे दियो जाते जिससे निगाह भी ठीक हो जाती और ऑंखों में तिरछापन भी न पनपता।

पर अब सिर्फ ऑंखों के तिरछेपन को मिटाने के लिए आपरेशन किया जा सकता था। दायी ऑंख की दृष्टि लौटा पाना संभव न था।

आपरेशन हुआ। आज सुधा की दोनों ऑंखें ठीक दिखती है। इससे उसका व्यक्तित्व खिल उठा है। अब वह हर समय हंसती-खेलती, बतियाती नजर आती है और उसका आत्मविश्वास कोई सीमा नहीं जानता।

सुधा की तरह दुनिया में बहुत से लोग ऑंखों के तिरछेपन से पीड़ित है। इस विकार के कई रूप है, पर मूलत: इसमें दोनों ऑंखों के बीच तालमेल नहीं रहता और एक ऑंख लक्ष्य से भटकी हुई दिखती है। इसे ही भैंगापन या सि्क्वट कहते हैं।

बायनाक्यूलर विजन क्या है?

सामान्यत: हम जिस किसी दिशा में देखते हैं, हमारी दोनों ऑंखें उसी दिशा में घूम जाती है। इससे उनकी समानांतरता बराबर बनी रहती है। दोनों ऑंखे एक ही बिन्दु पर केन्द्रित होती है और उनमें बनने वाले बिम्ब कुछ हद तक अलग होते हुए भी एक-दूसरे में लीन हो जाते हैं।

इससे जो तस्वीर हमारे सामने उभरती है, वह तीन आयामी होती है। इसे ही द्विनेत्रीय दृष्टि या बायनाक्यूलर विजन कहते हैं। पर यह तभी संभव हो पाता है जब दोनों ऑंखों की दृष्टि प्रणाली स्वस्थ हो और दोनों ऑंखों के बीच पूरा तालमेल रहे।

यह तालमेल, दृष्टि प्रक्रिया की कई कड़ियों के नपे-तुले मेल से संभव होता है।

इसमें एक एक तरफ नेत्रगोलक का हर वह हिस्सा भाग लेता है, जिससे दृष्टिपटल पर ऑंख के सामने का बिम्ब उभरता है, जिससे आप्टिक तंत्रिका मस्तिक के दृष्टि संबंधी क्षेत्र तक पहुंचाती है।

तो दूसरी तरफ ऑंख की वे छह मांसपेशियां होती है, जो आंख को ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं व गोलाकार दिशा में घुमाती है। इन मांसपेशियाें की लगाम वे तंत्रिकाएं होती है जिनका संचालन केन्द्र मस्तिक में होता है। दोनों ऑंखों के केन्द्र आपस में और मस्तिक के दूसरे केन्द्रों के साथ पूरा समन्वय रखते हें। हमारी इच्छा के अनुसार मस्तिक का उपयुक्त संचालन केन्द्र सक्रिय हो जाता है और ऑंखों की वह लगाम खिंच जाती है, जिसे सक्रिय होने की जरूरत होती है।

इससे दोनों ऑंखे एक साथ उसी दिशा में घूम जाती है।

अत: देखने की प्रक्रिया में दोनों ऑंखों की स्वस्थ भागेदारी के लिए न सिर्फ ऑंख की खिड़की कार्निया से लेकर मस्तिष्क का दृष्टि संचालन क्षेत्र तक का रास्ता बल्कि मस्तिष्क का दृष्टि संचालन केन्द्र, ऑंख की मांसपेशियों का ठीक होना आवश्यक है। इनमें से किसी एक के अस्वस्थ होने पर उस तरफ की ऑंख अपने लक्ष्य से भटक सकती है और भैंगापन उत्पन्न हो सकता है।

दिखावे का भैंगापन?

कभी-कभी ऑंखों के पूरी तरह स्वस्थ होने पर भी ऐसा मिथ्या आभास हो सकता है कि ऑंखों में भैंगापन है। इसे स्यूडो सिक्वंट कहते हैं। वह विकार प्राय: उन बच्चों में देखा जाता है जिनमें ऑंख के कोने और नाक के बीच की दूरी असामान्य रूप से ज्यादा होती है। इससे ऐसा आभास मिलता है कि एक ऑंख की पुतली अंदर नाक की तरफ छू गई है, पर नेत्र रोग विशेषज्ञ के जाँच करने पर ऑंखों में कोई कमी नहीं मिलती।

कई बच्चों में उम्र के साथ वह विकार खुद दूर हो जाता है। यदि पांच वर्ष की उम्र तक यह ठीक न हो तो प्लास्टिक सर्जरी द्वारा इसे ठीक किया जा सकता है।

भैंगेपन की किस्में

भैंगेपन की कई किस्में है। कुछ मामलों में तो वह प्रत्यक्ष रूप से दिखाई भी नहीं देता। इसे लेटेंट सि्क्वट कहा जाता है। इसमें निगाह में थोड़ा अंतर होता है, जिसे आंख की मांसपेशियां छिपाने की कोशिश करती है। इस कारण आंखे देखने में ठीक-ठाक लगती हैं पर बच्चा पढ़ने के बाद आंखों में तनाव और सिरदर्द की शिकायत करता है। सुबह से शाम होने तक कभी-कभी आंख बाहर की तरफ भागने लगती है। यदि समय से इसका इलाज न हो तो आगे चलकर भैंगापन प्रत्यक्ष रूप से दिखने भी लग सकता है।

आंखों के व्यायाम और नजर के चश्में में ज्यादातर मामलों में लेटेंट सि्क्वंट दूर किया जा सकता है। कुछ में शल्य सुधार की जरूरत भी पड़ सकती है। प्रत्यक्ष रूप से नजर आने वाले सि्क्वंट की दो प्रमुख किस्में है-

अधरंगी भैंगापन: ऑंख को हरकत में लाने वाली छ: मांसपेशियों में से किसी एक या ज्यादा मांसपेशी के कमजोर हो जाने से अधरंगी भैंगापन (पैरालिटिक सि्क्वंट) जन्म लेता है।

ऐसा कई कारणों से हो सकता है। जैसे प्रसव के समय, जन्म ले रहे शिशु की ऑंख पर लगी चोट खासतौर से जब शिशु-जन्म के लिए चिमटी का इस्तेमाल किया जाता है। कोई ऐसी दुर्घटना, जिसमें सिर की चोट में ऑंख की मांसपेशियों की कोई एक तंत्रिका चोट खा बैठती है। मधुमेह तथा उच्च रक्तचाप के रोगियों में तंत्रिकीय क्षति। मस्तिक में टयूमर, इन्फेक्शन, भीतरी दाब बढ़ने या खून का दौरा टूटने से तंत्रिकीय क्षति। ऑंख के आपरेशन में किसी मांसपेशी या तंत्रिका का दुर्घटनामय होना आदि।

इससे ऑंख उस दिशा में नहीं घूम पाती, जिस दिशा में सामान्यत: कमजोर हुई मांसपेशी उसे ले जाती रही है।

यदि यह विकार जन्म से होता है, तो बच्चा दोनों ऑंखों को समानांतर लाने की कोशिश में अपना सिर इधर-उधर घुमाता है। बच्चे की यह असाधारण सिर मुद्रा ही इस विकार की पहचान होती है।

तीन साल से ज्यादा की उम्र में रोगी प्रत्येक वस्तु दो-दो दिखने की शिकायत करता है। उसे आसपास रखी चीजों की स्थिति का ठीक-ठीक आभास नहीं होता और वह उनसे टकरा सकता है। उसे सिर घूमने की शिकायत हो सकती है, सीढ़ियां उतरना मुश्किल हो सकता है। वह सिर को एक तरफ झुका कर रखने लग सकता है। इन परेशानियों से बचने के लिए उसे एक आंख बंद करके रखने की आदत पड़ सकती है।

ऐसे में ऑंखों की जाँच करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऑंख की कौन-सी मांसपेशी कमजोर या बेकार हुई है। उसके बाद इसका कारण तलाशने का प्रयास किया जाता है। संभव होने पर उसे दूर करने के लिए पूरी कोशिश की जाती है।

कुछ मामलों में ऑंखों के व्यायाम से फायदा पहुंंचता है। यदि वह मांसपेशी आंशिक रूप से कमजोर हुई होती है, तो छ:-आठ महीने बाद उस ऑंख की मांसपेशियों में नया तालमेल बिठाने के लिए आपरेशन किया जा सकता है। इससे ऑंख का अपने लक्ष्य से भटकना बंद हो जाता है।

जिन मरीजों में दो-दो बिम्ब दिखने की समस्या ज्यादा तकलीफदेह होती है, उनसे रूग्ण ऑंख के आगे अपारदर्शक शीशा या पर्दा लगा दिया जाता है।

सहवर्ती भैंगापन

भैंगेपन की दूसरी प्रमुख किस्म सहवर्ती भैंगापन है। इसमें ऑंख की मांसपेशियां, उनकी तंत्रिकाएं और तंत्रिकाओं के मस्तिष्क केन्द्र सामान्य होते हैं। दोनों ऑंखे दो भिन्न बिन्दुओं पर केन्द्रित होती है और यह भिन्नता हर दिशा में एक जैसी बनी रहती है। यानी ऑंखों के बीच, ऑंख ही हर मुद्रा में तिरछेपन का कोण एक जैसा रहता है।

इसके दो रूप हो सकती है- एक में एक ऑंख सीधी दिखती है, और दूसरी अंदर की तरफ घूमी हुई। और दूसरे में एक ऑंख सीधी और दूसरी बाहर की तरफ घूमी हुई।

सहवर्ती भैंगेपन का कारण सही-सही ज्ञात नहीं है। पर ऐसा देखा गया है कि यदि एक ऑंख की निगाह बचपन से ही कमजोर होती है तो वह दूसरी ऑंख के साथ तालमेल बिठाने में चूक कर सकती है। इससे ही भैंगापन उभर आता है। जन्म से कॉर्निया और दृष्टिपटल के रास्ते में कोई बाधा जैसे जन्मजात मोतियाबिन्द या दोनों ऑंखों के बीच फोकसिंग प्रणाली में अधिक अंतर सहवर्ती भैंगापन का कारण बन सकती है।

पांच से दस वर्ष के बच्चों में पास या दूर की नजर की कमजोरी भी इस पैदा कर सकती है।

ऐसा तब होता है जब उसकी यह समस्या पहचानी नहीं जाती और निगाह ठीक करने के लिए उसे चश्मा नहीं दिया जाता।

दोनों ऑंखों के चश्मे के नम्बर से ज्यादा अंतर होने पर भी कमजोर ऑंख तिरछी हो सकती है।

सहवर्ती भैंगापन हर समय रह सकता है या कुछ मामलों में सिर्फ समय-समय पर उभरता है। तब इसे पहचान पाना मुश्किल होता है।

इससे दृष्टि एक नेत्रीय हो जाती है। तिरछी ऑंख में उभरने ऑंख में उभरने वाले बिम्ब को मस्तिष्क नजर अंदाज करने लगता है, जिससे एक उम्र के बाद वह ऑंख अपनी दृष्टि गवां बैठती है। परिणामत: रोगी का दृष्टि क्षेत्र सीमित हो जाता है। इससे बच्चे का व्यक्तित्व भी अवरूध्द हो जाता है। दूसरे बच्चों के छेड़ने और हंसी उड़ाने से बच्चा उनके साथ हिल-मिल नहीं पाता और बहुत अकेला हो जाता है। या अपनी कमी को छिपाने के लिए हिंसक हो जाता है। बड़े होने पर ऑंखों की यही कमी उसकी नौकरी और विवाह में बाधक बन सकती है।

अत: माता-पिता के लिए यह जरूरी है कि यदि उनके बच्चे में ऑंखों का यह दोष हो तो अंधविश्वासों में पड़कर वे इसे नजर अंदाज न करें। समय से की गई चिकित्सा द्वारा न सिर्फ टेढ़ी ऑंख की दृष्टि बचाई जा सकती है बल्कि दोनों ऑंखों के बीच स्वस्थ तालमेल विकसित कर बच्चे को बायनाक्यूलर दृष्टि भी प्रदान की जा सकती है।

कई मामलों में नजर का चश्मा और नियमित ऑंखों के व्यायाम से बच्चे की ऑंखों को स्वस्थ बनाया जा सकता है। कुछ माता-पिता बच्चे के चश्मा पहनने के बारे में लापरवाही दिखाते हैं। यह ठीक नहीं, दो साल का बच्चा भी चश्मा लगा सकता है।

कुछ मामलों में एक ऑंख पर कुछ समय के लिए पर्दा लगाना भी जरूरी हो सकता है। बहुत से मामलों में उन उपायों से भैंगापन ठीक नहीं हो पाता। उनमें और कुछ में शुरू से ही आपरेशन जरूरी होता है। इस आपरेशन को अनावश्यक टालना नहीं चाहिए। यह पूरा इलाज काफी समय लेता है और माता-पिता के धैर्य की पूरी परीक्षा भी। कुछ मामलों में यह भी जरूरी हो जाता है कि आपरेशन दो या तीन चरणों में किया जाए। इस दौरान ढील छोड़ देने से बच्चा पूरी उम्र के लिए अपंग हो सकता है।

इस आपरेशन में जीवन का कोई खतरा नहीं होता। मरीज को आपरेशन के दो-एक दिन बाद ही घर भेज दिया जाता है।

जिन बच्चों में चश्में से भैंगापन ठीक हो जाता है, उन्हें हर छ: महीने पर ऑंखों की जाँच करवाते रहनी होती है। आठ साल की उम्र में कुछ बच्चों का चश्मा उतर भी जाता है।

उन मामलों में जिनमें वयस्क हो जाने तक कोई चिकित्सा नहीं हुई होती, टेढ़ी ऑंख की दृष्टि में सुधार ला पाना संभव नहीं होता। पर तब भी आपरेशन द्वारा ऑंख का तिरछापन दूर किया जा सकता है। यह सौंदर्य आपरेशन किसी भी उम्र में किया जा सकता है।

बहुत से लोग भैंगेपन को दैवी प्रकोप मानते हैं। यह सच नहीं है। भैंगापन ऑंखों का एक विकार है और उसका सही उपचार समय से की गई चिकित्सा से ही संभव है।

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