डायबेटिक रेटिनोपैथी
आंखों की संरचना
आंखों की सबसे अन्दर की परत एक नाजुक ऊतक ‘रेटिना’ का बना होता है। इसकी तुलना कैमरे के अन्दर फिल्म से की जा सकती है। रेटिना में विशिष्ट कोशिकाएं दृश्य संवेदनों को प्राप्त करती हैं तथा उन्हें दृष्टि तंत्रिकाओं के माध्यम से मस्तिष्क तक भेजती हैं। रेटिना का केन्द्रीय भाग जो कि सबसे अधिक संवेदनशील होता है और जो साफ देखने में हमारी सहायता करता है ‘माकुला’ कहलाता है।
डायबेटिक रेटिनोपैथी रेटिना के उन विशिष्ट परिवर्तनों पर लागू होता है जो डायबेटीज मेलाइटिस से पीड़ित लोगों में होते हैं। रेटिनोपैथी की घटनाएं डायबेटीज की अवधि से सीधे जुड़ी हुई लगती हैं न कि इसकी तीव्रता या नियंत्रण से।
ये परिवर्तन रेटिना की छोटी रक्त वाहनियों के कारण होते हैं। इन रक्त वाहनियों की अंदर की परत कमजोर हो जाती है और छोटी-छोटी थैलियां बन जाती हैं। इन्हें ‘माइक्रो-एन्यूरिम्स’ कहते हैं। रक्त वाहनियां असमान्य रूप से द्रवों का आदान प्रदान करने लगती हैं तथा पदार्थ उन स्थानों पर रिसने लगते हैं जहां पर सामान्य रूप से उन्हें प्रवेश नहीं करना चाहिए। इससे रेटिना में जल जमाव हो जाता है तथा इसे ‘इडिमा’ कहते हैं और रेटिना पर जमा पदार्थ को ‘एक्स्यूडेट’ कहते हैं। ये परिवर्तन धुंधली दृष्टि में परिणित होते हैं, यदि वे माकुला पर स्थित होते हैं। इस स्थिति को ‘बैकग्राउण्ड रेटिनोपैथी’ कहते हैं।
डायबेटिक रेटिनोपैथी में सबसे गंभीर परिवर्तन रेटिना की वाहनियों का बंद होना होता है। इससे रेटिना के ऊतकों में आक्सीजन की कमी हो जाती है तथा रेटिना पर रक्त वाहनियों की असामान्य रूप से वृध्दि हो जाती है। ये नई वाहनियां भी कमजोर दीवारों की होती हैं तथा इनकी प्रवृत्ति होती है कि से आसानी से आंखों में खून छोड़ दें। इससे एकाएक दृष्टि का गंभीर ह्रास होता है। काले धब्बे दिखना या विभिन्न आकारों में तैरते हुए आकार दिखना या मकड़ी के जाले दिखने से सामान्य रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आंख में खून आया है। इस खून आने को ‘विट्रियस हैमरेज’ कहा जाता है।
बीमारी के इस चरण को ‘प्रोलीफरेटिव रेटिनोपैथी’ कहा जाता है। यदि खून अधिक आया है तो दृष्टि पूरी तरह समाप्त हो जाती है या धुंधली हो जाती है। ऐसा खून आना अपने आप साफ हो सकता है या ऐसे ही रह सकता है। कभी कभी बार बार खून आता है। इससे रेशेदार ऊतक बन जाता है जो रेटिना को खींच कर ‘रेटिनल डिटैचमेंट’ कर सकता है जो कि एक गंभीर स्थिति है तथा इसके प्रबंधन के लिए सर्जरी आवश्यक हो सकती है।
डायबेटिक रेटिनोपैथी से परिवर्तित आंख की दृष्टि अच्छी हो सकती है तथा तब तक बिना किसी लक्षण के होती है जब तक माकुला प्रभावित न हो। दृष्टि में कमी तभी होती है जब माकुला पर जल जमाव हो जाए, रेटिनल डिटैचमेंट हो जाए या विट्रस हैमरेज उसे ढंक ले।
डायबेटिक रेटिनोपैथी के लक्षण क्या हैं?
जैसा के ऊपर बताया गया है मरीजों में तीव्र रेटिनोपैथी हो सकती है परंतु लक्षण अनुपस्थित हो सकते हैं क्योंकि माकुला अप्रभावित रहता है। इसीलिए सभी डायबेटीज के रोगी, विशेष रूप से वे जिन्हें पांच वर्षों से अधिक समय से बीमारी है, को चाहिए कि वे अपनी आंखों की जांच ऐसे आंख के डाक्टर से कराएं जिसे रेटिना की बीमारियों के प्रबंधन में विशेष रूप से प्रशिक्षण प्राप्त हो। यदि सही समय से बीमारी का पता चल जाए तो लेसर फोटोकोएगुलेशन से इलाज से अधिकांश मामलों में डायबेटिक रेटिनोपैथी के दृष्टि को प्रभावित करने वाले प्रभावों का लंबे समय तक टाला जा सकता है।
डायबेटिक रेटिनोपैथी का उपचार किस तरह किया जाता है?
डायबेटीज के कारण रेटिना की बीमारियों को डायबेटीज के नियंत्रण के द्वारा टाला जा सकता हैं लेकिन चूंकि यह एक धीरे धीरे बढ़ने वाली लाइलाज बीमारी है यह अंतत: रोगी के जीवन के किसी न किसी चरण में रेटिनोपैथी अवश्य करती है। अभी तक ऐसी कोई दवा नहीं बनी है जो डायबेटिक रेटिनोपैथी की प्रगति या रोक पर प्रभाव डाल सके। इस दशक में अमेरिका में उचित तरीके से नियोजित तथा लागू किए गए बहु केन्द्रीय अध्ययनों ने शुरुआती एवं पुराने डायबेटिक रेटिनोपैथी के इलाज में लेजर फोटोकोएगुलेशन के प्रभाव को सिध्द किया है। लेजर फोटोकोएगुलेशन इस प्रकार पूरे विश्व में डायबेटिक रेटिनोपैथी के उपचार का मुख्य इलाज बन कर उभरा है और दवाओं की भूमिका केवल समर्थक है।
फ्लोरेस इन एंजियोग्राफी (एफ.आई.ए.) जांच क्या है?
यह एक विशेष जांच है जिसमें ‘फ्लोरेसीन’ नाम की एक डाई मरीज के रक्त में सुई से डाल दी जाती है और जब यह डाई रेटिना में पंहुचती है तो फंडस कैमरा नाम के एक विशेष कैमरा से रेटिना की फोटो ली जाती है। यह जांच लेजर उपचार के अर्न्तगत सभी मरीजों पर की जाती है क्योंकि इससे डाक्टर का पता चलता है कि रेटिनोपैथी की तीव्रता कितनी है। इसके अलावा जांच को लेजर उपचार के पूरा होने के बाद भी किया जाता है ताकि उपचार की प्रभावशीलता का आंकलन किया जा सके तथा फिल्म को आगे के लिए स्थाई रिकार्ड के रूप में रखा जा सके। पर्याप्त रेटिनोपैथी के सभी रोगियों को यह जांच समय समय पर करानी होती है।
इसके लिए रोगी को 3 घंटे से उपवास पर रहना होता है तथा उसे एक वयस्क के साथ आना होता है। इस जांच में कोई बेचैनी नहीं होती सिवा उस समय के जब सुई से डाई इंजेक्ट की जा रही होती है और कैमरे की फ्लैश चमकती है। जांच के लगभग तीन दिनों बाद तक रोगी को हरा पीला मूत्र होता है। इसकी उपेक्षा करनी चाहिए। इस अवधि में रोगी को अपनी रक्त शर्करा की जांच नहीं करानी चाहिए क्योंकि शरीर में संचारित हो रही डाई के कारण गलत परिणाम आ सकते हैं। जांच के दौरान कुछ रोगियों को चक्कर आते हैं, पर वे शीघ्र ही ठीक हो जाते हैं। बहुत कम प्रतिशत रोगी डाई से एलर्जिक हो सकते हैं तथा खुजली से लेकर सांस लेने में कठिनाई तक का अनुभव कर सकते हैं। लेकिन ऐसे मामले बहुत कम होते हैं और इनका उपचार आसानी से किया जा सकता है। जीवन के खतरे वाली प्रतिक्रियाएं अपवाद स्वरूप होती हैं, परंतु फिर भी ये हो सकती हैं। कुल मिला कर यह बहुत सुरक्षित जांच है तथा इसके शायद ही कोई दुष्परिणाम देखने को मिलता हो।
लेजर फोटोकोएगुलेशन क्या है?
लेजर एक प्रकार का अति केन्द्रित एवं सांद्र प्रकाश होता है। यह रेटिनोपैथी के उपचार के लिए हरे रंग का होता है। इसे एक विशेष एवं अत्यंत मंहगी मशीन आर्गान लेजर के अंदर उत्पन्न किया जाता है। इस प्रकाश में इतनी शक्ति होती है कि यह रेटिना में उपस्थित कुछ प्रकार के ऊतकों को नष्ट कर देता है। इस प्रकाश को रेटिना के विशेष भागों पर डाक्टर के द्वारा फोकस किया जाता है ताकि उन्हें चयनित ढंग से नष्ट किया जा सके। यह काफी हद तक उस तरीके के समान है जिसमें एक लेन्स के द्वारा सूरज की रोशनी को फोकस कर कागज को जलाया जाता है।
आर्गान लेजर फोटोकोएगुलेशन किस प्रकार सहायता करता है?
लेजर से वे क्षेत्र चयनित रूप से नष्ट किए जाते हैं जिनमें एडीमा, माइक्रोएन्यूरिज्म तथा रिसती हुई नई रक्त वाहनियां होती हैं। इन रक्त वाहनियों की प्रवृत्ति रिसने तथा विट्रस हैमरेज करने की होती है। इस उपचार का मुख्य उद्देश्य होता है बीमारी को उसी चरण पर रोक देना जिस चरण पर उसे पाया गया था तािा इस प्रकार से उन दृष्टि संबंधी विकारों को होने से रोक दिया जाता है या उन्हें देर से होने दिया जाता है जो भविष्य में हो सकते हैं। फोटोकोएगुलेशन से यह जरूरी नहीं है कि रोगी बेहतर देखने लगे या अच्छा अनुभव करने लगे हांलाकि कुछ सीमित मामलों में दृष्टि में सुधार हो सकता है। यह काले धब्बे या ‘फ्लोटर्स’ को समाप्त नहीं करता है तथा यदि हो गया है तो यह विट्रस हैमरेज का उपचार नहीं करता है। कुछ मामलों में जहां बीमारी बहुत तेजी से फैल रही हो वहां रेटिनोपैथी पर फोटोकोएगुलेशन का कोई प्रभाव भी नहीं हो सकता है। इस अवधि में विद्यमान नई रक्त वाहनियों से खून रिसने का खतरा सदैव बना रहता है। जब वांछित परिणाम मिल जाता है तो नई रक्त वाहनियां सामान्यत: सिकुड़ जाती हैं तथा वे तब तक कोर्इ्र खतरा नहीं होतीं जब तक वे रेटिना के किसी अन्य क्षेत्र से न निकल आएं।
कितनी बार फोटोकोएगुलेशन की आवश्यकता होगी?
यदि रोगी को रेटिनोपैथी की शुरुआत है और इसमें केवल माकुला के कारण दृष्टि धुंधली हो गई है तो सामान्यत: लेजर के केवल एक दौर की ही आवश्यकता होती है। रोगी को 6 से 8 हफ्तों के बाद फिर देखा जाता है और यदि एडीमा बचा होता है तो एक और बार इलाज की सलाह दी जाती है।
जिन रोगियों को बीमारी प्रोलीफरेटिव रेटिनोपैथी के रूप में और अधिक गंभीर होती है उन्हें सामान्यत: एक से पांच बार की आवश्यकता होती है। यह स्थिति की गंभीरता पर निर्भर करता है। ये इलाज या तो लगातार किया जाता है या दो इलाजों के बीच एक हफ्ते का अंतर रहता है।
माकुलर एडीमा के लिए जिन मरीजों का उपचार पहले किया जा चुका है उनमें बाद में प्रोलीफरेटिव रेटिनोपैथी विकसित हो सकती है तथा उन्हें रेटिनोपैथी की गंभीरता के अनुसार और उपचार की आवश्यकता होती है।
लेजर उपचार के साइड इफेक्ट क्या हैं?
शायद ही कोई साइड इफेक्ट होते हैं। उपचार के तत्काल बाद दृष्टि काफी धुंधली होगी, विशेष रूप से यदि माकुला का इलाज किया गया है परंतु यह कुछ घंटों में ठीक हो जाता है। इलाज के सत्र में मरीज को अपनी आंखें हिलानी नहीं चाहिएं तथा उस दिशा में देखते रहना चाहिए जिस दिशा में देखने के लिए उसे डाक्टर ने कहा है अन्यथा लेजर बीम को उचित क्षेत्र पर फोकर रखने में कठिनाई होगी।
कुछ मामलों में दृष्टि फोटोकोएगुलेशन के बावजूद खराब होती रह सकती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि माकुला में रोक न जा सकने वाले परिवर्तन आ चुके होते हैं।
लेजर उपचार के बार क्या सावधानियां लेनी चाहिएं?
उपचार के दौरान किन्हीं विशेष सावधानियों की आवश्यकता नहीं होती है। उपचार बाह्य रोगी विभाग में किया जाता है तथा एक सत्र 15 से 20 मिनट चलता है। रोगी को डायबिटीज की दवाएं तथा आहार लेते रहना चाहिए। प्रोलीफरेटिव बीमारी की दशा में उसे अधिक व्यायाम तथा दौड़ने से बचना चाहिए क्योंकि सर में लगने वाले झटकों से नई रक्त वाहनियां रिस सकती हैं। इसके अलावा किसी अन्य सावधानी की आवश्यकता नहीं है।
रोगी को उसके डाक्टर के लगातार निरीक्षण में रहना होता है तथा उसे नियमित जांच के लिए आना चाहिए। यह सामान्यत: हर 3 से 6 महीने में किया जाता है। इन दौरों में एफ.एफ.ए. को दोहराया जा सकता है और अधिक लेजर उपचार की आवश्यकता हो सकती है। उसे अपनी डायबिटीज को नियंत्रण में रखना चाहिए तथा अन्य समस्याओं जैसे रक्त चाप, गुर्दे की समस्या तथा हृदय की समस्याओं का उपचार लेते रहना चाहिए।
यदि लेजर उपचार के बाद भी रेटिनोपैथी बढ़ती रहे तो क्या?
जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है डायबिटीज एक बढ़ने वाली लाइलाज बीमारी है। लेजर से रेटिनोपैथी का इलाज करने से हम केवल दृष्टि बाधित करने वाली जटिलताओं को टाल सकते हैं। सबसे अच्छा यह हो सकता है कि बीमारी स्थिर हो जाए तथा रुक जाए, परंतु कुछ मामलों में यह उस समय तक बढ़ती रह सकती है जब तक एक बड़ा विट्रियस हैमरेज तथा रेटिनल डिटैचमेंट न हो जाए। कुछ मामलों में और लेजर से इलाज किया जा सकता है जबकि अन्य मामलों में ‘कायरोथिरेपी’, जो कि एक प्रकार का ठंडी सिकाई है, से सहायता मिलती है।
विरेक्टामी क्या है और इसकी आवश्यकता कब पड़ती है?
यदि विट्रियस हैमरेज अपने आप समाप्त नहीं होता है या रेटिनल डिटैचमेंट में माकुला सम्मिलित है तो आपरेशन ही इकलौता विकल्प होता है। यह आपरेशन देश के केवल कुछ रेटिना केन्द्रों पर किया जाता है। इसे ‘विरेक्टामी’ कहते हैं। हम इस चिकित्सालय में इस आपरेशन को सीमित मामलों में कर रहे हैं क्योंकि यह रोगी के लिए मंहगा होता है, परिणाम आशा के अनुसार सदैव नहीं मिलते हैं एवं आपरेशन के बाद की जटिलताएं अकसर हो जाती हैं।
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