रेटिनोबलास्टोमा
”रेटिनोबलास्टोमा” बच्चों में पाया जाने वाला आंख का सबसे आम कैंसर है। हर 15000 नए जन्मे बच्चों में एक, अपने चौथे जन्मदिन से पहले इससे पीड़ित हो जाता है। जींस से जुड़ा यह कैंसर कुछ परिवारों में वंशानुगत रोग के रूप में भी देखा जाता है, जहाँ पहला, पहले के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा बच्चा इसकी आहुति चढ़ जाता है। कम संगीन मामलों में जिनमें रोग फैला नहीं होता, इलाज से 70 फीसदी बच्चों का जीवन बच सकता है।
नेपाल के एक छोटे से कस्बे में आई थी, वह प्यारी सी, छोटी सी गुड़िया। नाम था सीता। उम्र 17 महीने। माँ-बाप की पहली संतान। कोई देखता तो वह अंदाजा न लगा पाता कि उसकी ऑंखों में इतना भयानक रोग छिपा है। माँ-बाप ने पाया था कि चार-एक महीनों से उसकी ऑंखें सूनी हो गई थी। उनमें रोशनी नहीं रही थी। दोनों काली पुतलियों के भीतर सफेद छाया नजर आती थी। बहुत कोशिश कर उन्होंने पैसा जुटाया था और बहुत उम्मीद से दिल्ली आए थे। विशेषज्ञों ने देखा तो कारण साफ हो गया। सीता की दोनों ऑंखों में कैंसर उतर आया था। उससे ऑंख का पर्दा अपनी जगह से हट गया था। इसीलिए ऑंखे सूनी हो गई थी। सीता की ऑंखों का एक्स-रे, अल्ट्रासाउण्ड और सी.टी. स्कैन भी हुआ। पता चला कैंसर अभी फैला न था। अत: यह निर्णय लिया गया कि इलाज के लिए ऑंखों को निकाल देना ही सबसे ठीक रहेगा। इससे सीता के बच सकने की संभावना तकरीब 70 फीसदी रहेगी।
सीता रेटिनोबलास्टोमा से पीड़ित थी। रेटिबलास्टोमा बच्चों की ऑंख में होने वाला सबसे आम कैंसर है। अध्ययनों से पता चलता है कि हर 15000 नए जन्में शिशुओं में से एक, इसके चंगुल में आ जाता है। लगभग सभी मामले जीवन का तीसरा साल खत्म होने से पहले ही पहचान में आ आते हैं और इनमें से बीस से तीस फीसदी अपना आठवां जन्मदिन नहीं मना पाते। लड़के ओर लड़कियों में यह बराबर-बराबर देखा जाता है।
वंशानुगत कारण
छह फीसदी मामलों में पहले भी परिवार में रोग हो चुका होता है। बाकी मामलों में रोग जींस में हुई ताजा तब्दीलियों से पैदा होता है। इनमें से एक चौथाई में यह तब्दीली ऐसी होती है कि उससे भावी पीढ़ियों में भी कैंसर फूट सकता है।
माँ-बाप के पूरी तरह स्वस्थ होने पर यदि उनके एक बच्चे में रेटिनोबलास्टोमा हुआ हो, तो उनके दूसरे बच्चों में रेटिनोबलास्टोमा होने की आशंका छह फीसदी रहती है।
यदि किसी माता पिता के दो या ज्यादा बच्चे इससे पीड़ित हुए हो, तो दूसरे बच्चों में भी इसके होने की आशंका बहुत बढ़ जाती है ओर तकरीबन पचास फीसदी हो जाती है।
यदि कोई आनुवंशिक रेटिनोबलास्टोमा का मरीज विवाह कर माँ या पिता बनता है, तो उसकी औलाद में यह कैंसर होने का डर पचास फीसदी रहता है।
इस कैंसर की यह भी खासियत है कि 25 से 30 फीसदी मरीजों में यह स्वतंत्र रूप से दोनों ऑंखों में फूट पड़ता है। ये सभी मामले आनुवंशिक रेटिनोबलास्टोमा के दर्जे में आते हैं। आंकड़ों से यह भी पता चलता हे कि पिछले चालीस वर्षो में रेटिनोबलास्टोमा की आम दर धीरे-धीरे बढती रही है। इसका एक इलाज में आई बेहतरी है। बेहतर इलाज आने से जैसे-जैसे रोगियों के बचने की दर बढ़ रही है, उनमें से कई बड़े होकर माता-पिता भी बन रहे हैं। उनके बच्चों में रेटिनोबलास्टोमा अधिक देखा जा रहा है। धरती पर बढ़ रहे विकिरण प्रदूषण ने भी अपना बदअसर दिखाया है। इससे जींस में विकृतियों की दर खुद बढ़ जाती है। इसका एक रूप रेटिनोबलास्टोमा हो सकता है।
पर्दे से फूटता कैंसर
रेटिनोबलास्टोमा ऑंख के पर्दे-रेटिना-से उपजने वाला टयूमर है। यह पर्दे की तंत्रिकीय संवेदी तह से फूटता है। इसकी शुरूआत उन कोशिकाओं में होती हे जो अंधेरे उजाले का भेद करती है।
अधिकांश मामलों में यह टयूमर करीब अठ्ठारह महीने की उम्र में प्रकट होत ाहै। बच्चे की ऑंख के काले नीले या भूरे वाले पुतली के हिस्से में, सफेद या पीली सी अजीबोगरीब छाया दिखने लगती है। लगभग दो तिहाई मामलों में यही लक्षण माता-पिता को डाक्टर के पास जाने के लिए विवश करता है।
पर यह लक्षण सिर्फ रेटिनोबलास्टोमा में ही नहीं देखा जाता। ऑंख की भीतरी सूजन में पर्दे के उठ जाने से, भीतर की रक्त परत (कॉरयड) की टी.बी. में, घर के कुत्ते या बिल्ली से बच्चे की ऑंख में टाक्सोकेरा कीड़ा पहुंचने से, जन्म से ही लेंस के पीछे अपारदर्शक तह छूट जाने पर और दूसरी कई स्थितियों में यह लक्षण पाया जा सकता है। मोतियाबिन्द में भी कुछ ऐसा ही आभास मिलता है। पर यदि यह लक्षण दिखे, तो उसे नजर अंदाज नहीं करना चाहिए।
रेटिनोबलास्टोमा के दूसरे 20 फीसदी मामलों में बच्चे की ऑंख में भैंगापन आ जाना इसका मुख्य लक्षण होता है। अक्सर वह ऑंख अंदर की तरफ देखने लगती है।
टयूमर के बढ़ने के साथ ऑंख का भीतरी दाब भी बढ़ सकता है। ऐसे में ऑंख उभरी हुई दिखने लग सकती है।
कैंसर बढ़ने के साथ ऑंख में जोरों का दर्द शुरू हो सकता है, ऑंख बाहर की तरफ निकल आती है और कैंसर फूट कर बाहर निकल सकता है।
ऐसे में वह आसपास की लसिका-गांठों, सिर और जिस्म की दूसरी हड्डियों, मस्तिष्क और मेरू दण्ड और जिगर तक पहुंच सकता है।
टयूमर की पहचान
बच्चे में टयूमर की पहचान करने के लिए सबसे पहले आंख की विधिवत जांच की जाती है। इसके लिए आंख में पुतली को फैलाने के लिए दवा डाली जाती है और फिर बच्चे को बेहोश करने के बाद लेंस से भीतरी आंख का मुआयना किया जाता है। इससे टयूमर की स्थिति, आकार और फैलाव के बारे में बुनियादी जानकारी मिल जाती है। आंख का भीतरी दाव भी मापा जाता है।
इसके बाद आंख की अल्ट्रासाउण्ड और सी.टी. स्कैन जांच की जाती हे जिनसे यह पता चल जाता है कि कैंसर भीतर मस्तिष्क की तरफ कहां तक बढ़ा है।
फैले हुए रोग में जरूरत के मुताबिक दूसरी जांचे जैसे हड्डी में सूई डालकर मज्जा की जांच (बॉन मैरो एस्पिरेशन) और मेरू दण्ड के द्रव की जांच (लंबर पंक्रार) भी की जाती है।
रेटिनोबलास्टोमा के इलाज के लिए कई रास्ते हैं। सर्जरी, रेडियोथेरेपी, लेजर और कैंसर रोधक दवाएं। किस बच्चे में कौन सा तरीका (या तरीके) सबसे बेहतर रहेगा, इसका निण्रय टयूमर की स्थिति, आकार, फैलाव को ध्यान में रखकर किया जाता है।
सर्जरी इलाज का सबसे प्रभावशाली तरीका है। इसमें पूरी की पूरी आंख बाहर निकाल दी जाती है। साथ ही यह कोशिश भी रहती है कि उस आंख की नस (आप्टिक नर्व) का भी अधिक से अधिक हिस्सा काट कर निकाल दिया जाए। उसमें यदि कैंसर होने के लक्षण मिलते है तो आपरेशन के बाद रोगी बच्चे को रेडियोथेरेपी विकिरण चिकित्सा भी दी जाती है। इसके कुछ समय बाद निकाली गई आंख की जगह बनावटी आंख फिक्स कर दी जाती है।
बहुत शुरू के टयूमर में लेजर या क्रायोथेरेपी शीत चिकित्सा से भी टयूमर को नष्ट किया जा सकता है।
जिन बच्चों में कैंसर जिस्म के दूसरे अंगों में फैल चुका होता है, उनमें कैंसररोधक दवाएं देना जरूरी हो जाता है।
इलाज के नतीजे रोग की अवस्था पर निर्भर करते हैं। पर कुल मिला कर तकरीबन सतर से अस्सी फीसदी बच्चों का जीवन बचाया जा सकता है। अगर तीन साल तक रोग दुबारा न उभरे ओर दूसरी ऑंख भी सही सलामत रहे तो यह माना जा सकता है कि खतरा टल गया। लेकिन 15 फीसदी ऐसे बच्चे जिनमें दोनों आंखों में रेटिनोबलास्टोमा रहा होता है, आगे चल कर दूसरे किस्म के कैंसर से पीड़ित हो सकते हैं।
विशेषज्ञों का यह भी मत है कि जिन परिवारों में रेटिनोबलास्टोमा के मामले हुए हों, उनमें हर बच्चे की जन्म के एकदम बाद और तीन वर्ष की उम्र तक समय-समय पर आंखों की जांच होती रहनी चाहिए। इसके बाद दस वर्ष की उम्र तक वार्षिक जांच जरूरी है।
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