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मेक्यूलर डिजनरेशन जीवन की सांध्य बेला का रोग है। जब उम्र के साथ काया ढल रही होती है, रक्त धमनियां अपना लचीलापन गवां, तंग हो चुकी होती है, तभी आमतौर से यह रोग जन्म लेता है। इसमें आँख के पर्दे का सबसे संवेदनशील हिस्सा मेक्यूला काम का नहीं रहता, जिससे पढ़ना लिखना बारीक काम कर पाना मुश्किल हो जाता है। तब इलाज की क्या संभावनाएं रह जाती है?

ऑंख के पर्दे के पिछवाड़े में, बिन्दु जितना छोटा, एक अंडाकार हिस्सा होता है मेक्यूला। यह ऑंख के पर्दे का सबसे संवेदनशील भाग है। निगाह का बारीक महीन काम, रंगों की पहचान बहुत कुछ इसी में निहित है। यह ऑंख की केन्द्रीय रोशनी का आधार है। इसके स्वस्थ रहने से ही स्वस्थ निगाह संभव है।

पर कई लोगों में उम्र के ढलने के साथ मेक्यूला भी ढल जाता है। उसमें ऐसे विनाशकारी परिवर्तन आ जाते है कि वह काम का नहीं रहता। इसे ही ”मेक्यूलर डिजनरेशन” कहते हैं। रोशनी के हास का सबसे बड़ा कारण है। इससे दोनों ऑंखें प्रभावित होती है और आदमी का पढ़ना लिखना, बारीक निगाह का काम करना मुश्किल हो जाता है।

इक्के-दुक्के मामलों में मेक्यूलर डिजनरेशन कम उम्र में भी हो जाता है। ऐसे मामले ज्यादातर वंशानुगत होते हैं। कुछ में चोट, इंफैक्शन और सूजन से भी मेक्यूला की क्षति हो जाती है।

मेक्यूला का सूखना

बड़ी उम्र में होने वाले मेक्यूलर डिजनरेशन की दो किस्में हैं। एक, जिसमें मेक्यूला का पोषण करती महीन रक्त धमनियाँ उम्र के मुताबिक खुराक नहीं मिल पाती ओर वह सूखता जाता है। मेक्यूलर डिजनरेशन के 80 से 90 फीसदी मामले इस श्रेणी में आते हैं।

बाकी 10 से 20 फीसदी मामलों में स्थिति भिन्न होती है। इनमें मेक्यूला की सबसे बाहरी परत ओर उसे रक्त धमनियों से अलग करती उतकीय तह ब्रूश्स मैम्ब्रेन के बीच पानी आ जाता है जिससे ये तहें एक-दूसरे से अलग हो जाती है। कुछ मामलों में इसके साथ-साथ इस हिस्से में नई रक्त वाहिकाएं फूट पड़ती है जो कमजोर होती है और इस कारण उनसे रक्तस्राव से मेक्यूला क्षतिग्रस्त हो जाता है।

मेक्यूलर डिजनरेशन में एक ऑंख के प्रभावित होने पर आमतौर से कोई तकलीफ महसूस नहीं होती। पर जब दोनों ऑंखों में परिवर्तन आ जाते हैं, तो पढ़ना-लिखना और बारीक काम करना दूभर हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे सामने की चीज का बीच हिस्सा ढक दिया गया हो। कई बार चीजों की आकृति बदली-बदली नजर आती है सीधा दरवाजा घुमावदार दिखने लगता है आदि। चीजें छोटी-बड़ी भी दिख सकती है। रंग, खासतौर से नीला रंग, हल्के धूमिल पड़ते नजर आते हैं। सीधी लाइनें टेढ़ी-मेढ़ी, छपे हुए अक्षर धुंधले हो जाते हैं पर पूरा निगाह स्याह नहीं होती।

इन लक्षणों के साथ ही ज्यादातर रोगी नेत्र विशेषज्ञ से सलाह लेने के लिए आते हैं। विशेषज्ञ दवा द्वारा ऑंख की पुतली को फैलाने के बाद जब पर्दे की जांच करता है तो रोग के बारे में जानकारी मिल जाती है। स्लीट लेप जांच के जरिए मेक्यूला की बारीकी से जांच की जाती है। फिर खास तरह के टेस्ट भी किए जाते हैं, जिनमें एम्सलर ग्रिड टेस्ट और फ्लोरिसीन तथा आई.सी.जी. एंजियोग्राफी प्रमुख है।

एम्सलर ग्रिड टेस्ट

एम्सलर ग्रिड टेस्ट में खास तरह का ग्राफ पेपर इस्तेमाल किया जाता है। मरीज को बीच में पड़े बिन्दु पर निगाह टिकानी होती है ओर यह देखना होता है कि बाकी लाइनें और डिब्बे उसे कैसे नजर आते हैं। इस ग्रिड के द्वारा मरीज अपने घर पर स्वयं अपनी जांच समय समय पर कर सकता है।

फ्लोरिसीन तथा आई.सी.जी. एंजियोग्राफी

फ्लोरिसीन तथा आई.सी.जी. एंजियोग्राफी पर्दे ओर मेक्यूला को आहार देती रक्त धमनियों की जांच है। इसमें मरीज के हाथ की नस के जरिए रंगीन दवा दी जाती है। जब वह दौरा करते खून के साथ ऑंख की नसों में पहुंच जाती है, तो विशेष कैमरे से चित्र उतार लिए जाते हैं। इससे यह ज्ञात हो जाता है कि रक्त धमनियां किस स्थिति में है ओर उनसे स्राव कहां कहां हो रहा है।

इलाज

मेक्यूलर डिजनरेशन की पहली किस्म, जिसमें मेक्यूला सूख जाता है का, कोई इलाज नहीं है। सही नम्बर का चश्मा, हाथ का या फ्रेम में लगाया मैन्गिफाइंग लेंस और दूरबीन के इस्तेमाल से चीजों को बड़ा कर देखा जा सकता है। पढ़ने और महीन काम करने के लिए अच्छी रोशनी जरूरी होती है। इस जरूरत को पूरा करने के लिए खास तरह के लैंस भी बनाएं गए है। इन साधनों के अभ्यस्त होने में समय लगता है। इस बीच मरीज को हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। अधिकतर रोगी इन उपकारणों के सारे इस काबिल हो जाते हैं कि वे अपनी देखभाल कर सके।

जिन मरीजों में दूसरी किस्म की मेक्यूलर डिजनरेशन होती है उनमें रोग की प्रारंभिक अवस्था में इलाज संभव है। लेजर चिकित्सा द्वारा मेक्यूला की बाहरी तह और ब्रूशस मेम्ब्रेन के बीच उभरी कमजोर रक्त वाहिकाओं को खत्म किया जा सकता है और नजर बचायी जा सकती है।

इस कार्य के लिए आजकल दो विशेष प्रकार के लेजर जिसे डायोड लेजर कहते हैं, का प्रयोग किया जाता है। इलाज की एक प्रक्रिया को T.T.T. (Transpupillary Thermo Therapy) कहते हैं तथा दूसरी को P.D.T.

फ्लोरिसीन तथा आई.सी.जी. एंजियोग्राफी तथा T.T.T. लेजर की तीव्र किरणों को परदे के उस भाग पर केन्द्रित करते हैं जहां पर रोग उपस्थित है तथा रोगी रक्त-धमनियों को जला दिया जाता है। इस इलाज का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह हो सकता है कि रोगी रक्त धमनियों के साथ परदे का वह हिस्सा भी जल जाये जो रोगी नहीं हैं।

दूसरा इलाज है P.D.T. (Photo Dynamic Therapy)। यह अत्याधिक महंगा जरूर है परन्तु इसमें जलाने वाली कोई प्रक्रिया नहीं होती है। इसलिए परदे के सही सलामत हिस्से को कोई क्षति नहीं पहुंचती है। इस इलाज में पहले एक विशेष प्रकार की दवा बाँह की रक्त धमनी में इन्जेक्शन द्वारा दी जाती है। इस दवा की विशेषता यह है कियह परदे के उस भाग में एकत्रित हो जाती है जहाँ रोग है। इसके पश्चात विशेष लेजर को परदे के रोगी हिस्से पर केन्द्रित करते हैं। वहाँ पर एकत्रित दवा लेजर के लगते ही सक्रिय हो उठती है तथा उन रक्त धमनियों को नष्ट कर देती है। यह इलाज एक बार में सम्पूर्ण नहीं होता है तथा दो या तीन बार तक करना पड़ता है। इसमें कुल व्यय 1 से 1.5 लाख तक आता है। इसमें प्रयोग होने वाली विशेष दवा की कीमत अधिक होने के कारण ही यह इतना महंगा होता है।

यह सब उपकरण व सुविधाएं इस अस्पताल में ही उपलब्ध है।

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